अकबर इलाहाबादी (Biography of Great Poets Akbar Allahabdi)

 अकबर इलाहाबादी  

(Biography of Great Poets 'Akbar Allahabadi')

 

उपनाम      : 'अकबर'

मूल नाम     : सय्यद अकबर हुसैन रिज़वी

जन्म           : 16 Nov 1846 | इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश

निधन         : 09 Sep 1921

Relatives   : वहीद इलाहाबादी (गुरु)

 


शायरी की दुनिया के बेताज बादशाह "अकबर इलाहाबादी" किसी पहचान के मोहताज नहीं हैं, उर्दू में हास्य-व्यंग के सबसे बड़े शायर , इलाहाबाद में सेशन जज थे।समाज के हर तबके में पल रही बुराइयों के खिलाफ अपनी शायरी /कविताओं के माध्यम से कुठाराघात करने और आलोचनात्मक शैली में शायरी करना उनकी बहुत बड़ी पहचान रही है। इलाहाबाद में रहकर इलाहाबादी रंग में रंग जाना अकबर इलाहाबादी से अच्छा कोई नहीं जानता होगा। तभी तो उनका इलाहाबादी होना उनके नाम से ही झलकता है।

अकबर अल्लाहाबादी का जन्म 16 नवंबर 1846 में उत्तरप्रदेश के इलाहबाद (वर्तमान में प्रयागराज)में हुआ था । इनका पूरा नाम सैयद अकबर हुसैन रिजवी था। इनके पिता का नाम मौलवी तफ़ज़्ज़ुल हुसैन था। जो कि पर्सिया से एक आर्मी थे । वो बाद में हिंदुस्तान आ गए । इनकी मा एक बिहार के गया जिला के जगदीशपुर गाँव के एक जमींदार की बेटी थी।

अकबर इलाहाबादी ने अपनी प्राथमिक शिक्षा अपने पिता द्वारा घर पर ही ग्रहण की। साल 1856 में जा कर इन्हें जमुना मिशन स्कूल में दाखिला मिला जो कि एक अंग्रेज़ी माध्यम स्कूल था । लेकिन इन्होंने साल 1859 में स्कूल की पढ़ाई छोड़ दी लेकिन इन्हें अंग्रेज़ी पढ़ना और लिखना आ चुका था ।उन्होंने 15 साल की उम्र में अपने दो या तीन साल बड़ी लड़की से शादी की थी।

स्कूल छोड़ने के बाद रेलवे के इंजीनियरिंग डिपार्टमेंट में क्लर्क की नौकरी को करने लगे फिर अपनी नौकरी के दरम्यान ही इन्होंने वकालत का परीक्षा पास किया और तहसीलदार की नौकरी करने लगे बाद में इलाहाबाद में सेशन जज नियुक्त हुए।

 जब अकबर इलाहाबादी साल 1903 में जब सेवा निवृत हो गए तो वह वापस इलाहाबाद आ गए । फिर साल 1921 में 9 सितंबर को बुखार की वज़ह से इनका इंतेक़ाल हो गया ।

 गजलें


हंगामा है क्यूँ बरपा थोड़ी सी जो पी ली है

दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ

आँखें मुझे तलवों से वो मलने नहीं देते

ग़म्ज़ा नहीं होता कि इशारा नहीं होता

चर्ख़ से कुछ उमीद थी ही नहीं

दिल मिरा जिस से बहलता कोई ऐसा न मिला

फ़लसफ़ी को बहस के अंदर ख़ुदा मिलता नहीं

हाल-ए-दिल मैं सुना नहीं सकता

आह जो दिल से निकाली जाएगी

हूँ मैं परवाना मगर शम्अ तो हो रात तो हो

इक बोसा दीजिए मिरा ईमान लीजिए

अपने पहलू से वो ग़ैरों को उठा ही न सके

हया से सर झुका लेना अदा से मुस्कुरा देना

गले लगाएँ करें प्यार तुम को ईद के दिन

बहुत रहा है कभी लुत्फ़-ए-यार हम पर भी

वो हवा न रही वो चमन न रहा वो गली न रही वो हसीं न रहे

साँस लेते हुए भी डरता हूँ

बिठाई जाएँगी पर्दे में बीबियाँ कब तक

तेरी ज़ुल्फ़ों में दिल उलझा हुआ है

दर्द तो मौजूद है दिल में दवा हो या न हो

जहाँ में हाल मिरा इस क़दर ज़बून हुआ

हर क़दम कहता है तू आया है जाने के लिए

ज़िद है उन्हें पूरा मिरा अरमाँ न करेंगे

उम्मीद टूटी हुई है मेरी जो दिल मेरा था वो मर चुका है

आज आराइश-ए-गेसू-ए-दोता होती है

न रूह-ए-मज़हब न क़ल्ब-ए-आरिफ़ न शाइ'राना ज़बान बाक़ी

जज़्बा-ए-दिल ने मिरे तासीर दिखलाई तो है

कहाँ वो अब लुत्फ़-ए-बाहमी है मोहब्बतों में बहुत कमी है

फिर गई आप की दो दिन में तबीअ'त कैसी

बे-तकल्लुफ़ बोसा-ए-ज़ुल्फ़-ए-चलीपा लीजिए

रंग-ए-शराब से मिरी निय्यत बदल गई

ख़ुदा अलीगढ़ के मदरसे को तमाम अमराज़ से शिफ़ा दे

अपनी गिरह से कुछ न मुझे आप दीजिए

न बहते अश्क तो तासीर में सिवा होते

न हासिल हुआ सब्र-ओ-आराम दिल का

ख़ुशी है सब को कि ऑपरेशन में ख़ूब निश्तर ये चल रहा है

उन्हें निगाह है अपने जमाल ही की तरफ़

दिल-ए-मायूस में वो शोरिशें बरपा नहीं होतीं

अगर दिल वाक़िफ़-ए-नैरंगी-ए-तब-ए-सनम होता

क्या जानिए सय्यद थे हक़ आगाह कहाँ तक

इश्क़-ए-बुत में कुफ़्र का मुझ को अदब करना पड़ा

हवा-ए-शब भी है अम्बर-अफ़्शाँ उरूज भी है मह-ए-मुबीं का

शेख़ ने नाक़ूस के सुर में जो ख़ुद ही तान ली

मा'नी को भुला देती है सूरत है तो ये है

तरीक़-ए-इश्क़ में मुझ को कोई कामिल नहीं मिलता

ख़त्म किया सबा ने रक़्स गुल पे निसार हो चुकी

हल्क़े नहीं हैं ज़ुल्फ़ के हल्क़े हैं जाल के

जब यास हुई तो आहों ने सीने से निकलना छोड़ दिया

दिल हो ख़राब दीन पे जो कुछ असर पड़े

जो तुम्हारे लब-ए-जाँ-बख़्श का शैदा होगा

तुम ने बीमार-ए-मोहब्बत को अभी क्या देखा

दश्त-ए-ग़ुर्बत है अलालत भी है तन्हाई भी

ख़ुशी क्या हो जो मेरी बात वो बुत मान जाता है

हर इक ये कहता है अब कार-ए-दीं तो कुछ भी नहीं

जल्वा अयाँ है क़ुदरत-ए-परवरदिगार का

सदियों फ़िलासफ़ी की चुनाँ और चुनीं रही

वज़्न अब उन का मुअ'य्यन नहीं हो सकता कुछ

मिल गया शरअसे शराब का रंग

क्या ही रह रह के तबीअ'त मिरी घबराती है

मेरी तक़दीर मुआफ़िक़ न थी तदबीर के साथ

नई तहज़ीब से साक़ी ने ऐसी गर्म-जोशी की

मज़हब का हो क्यूँकर इल्म-ओ-अमल दिल ही नहीं भाई एक तरफ़

ये सुस्त है तो फिर क्या वो तेज़ है तो फिर क्या

हसीनों के गले से लगती है ज़ंजीर सोने की

रौशन दिल-ए-आरिफ़ से फ़ुज़ूँ है बदन उन का

मेहरबानी है अयादत को जो आते हैं मगर

हरम क्या दैर क्या दोनों ये वीराँ होते जाते हैं

लुत्फ़ चाहो इक बुत-ए-नौ-ख़ेज़ को राज़ी करो

यूँ मिरी तब्असे होते हैं मआ'नी पैदा

मेरे हवास-ए-इश्क़ में क्या कम हैं मुंतशिर

 

नज्म

आम-नामा

नामा न कोई यार का पैग़ाम भेजिए

नई तहज़ीब

ये मौजूदा तरीक़े राही-ए-मुल्क-ए-अदम होंगे

जल्वा-ए-दरबार-ए-देहली

सर में शौक़ का सौदा देखा

मदरसा अलीगढ़

ख़ुदा अलीगढ़ के मदरसे को तमाम अमराज़ से शिफ़ा दे

मिस सीमीं बदन

एक मिस सीमीं बदन से कर लिया लंदन में अक़्द

दरबार

देख आए हम भी दो दिन रह के देहली की बहार

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2 Comments

  1. Mere sabse priya kavi hai Akbar Allahabdi main ne unki har ek kavitayen padhi hai

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  2. My Fev....................

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