चर्ख़ से कुछ उमीद थी ही नहीं |
आरज़ू मैं ने कोई की ही नहीं |
मज़हबी बहस मैं ने की ही नहीं |
फ़ालतू अक़्ल मुझ में थी ही नहीं |
चाहता था बहुत सी बातों को |
मगर अफ़्सोस अब वो जी ही नहीं |
जुरअत-ए-अर्ज़-ए-हाल
क्या होती |
नज़र-ए-लुत्फ़
उस ने की ही नहीं |
इस
मुसीबत में दिल से क्या कहता |
कोई
ऐसी मिसाल थी ही नहीं |
चर्ख़ से कुछ उमीद थी ही नहीं |
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