कल्पना मेरी प्रेयसी

तुम कौन हो

जो रोज प्रातः

उठ मेरे हृदय

की वेदना के

गीत रचते हो

हर गीत में तुम

मीत मेरे प्रीत में

दब गये रगों के

दर्द के हिसाब

करते हो

मेरे दुखते रगो

पर हाथ रख

मुझे दर्द का अहसास

करने को मुझे जबरन

मजबूर करते हो

बता तुम कौन हो

जो रोज मेरे पाषाण

सा कठोर शुष्क हृदय को

हिम विगलित नीर का

निर्झर बना

तुम रोज झरते हो

बता तुम कौन हो

जो मेरी कलम को

पैनी बना भावों की

रोशनाई भरते हो

गमों और दर्द

की बहती नदी में

छोड़ जाते हो


कि नाविक बन

वेदना की स्वर लहरियों

पर तरते उतरते

सैर करते रहे

कभी ग़ज़ल

तो कभी मुक्तक

कभी विरह मिलन

के गीत रचते रहे

कभी दार्शनिक की

चिंतन को नया

आयाम देते रहे

कभी रागी

कभी वैरागी

तो कभी सूफियाना

प्रीत के गीत रचते

रहे

बता तुम कौन हो

जो रोज मेरे दर्द का

मुझ से हिसाब लेती हो

कहीं तुम मेरी कल्पना

मेरी प्रेयसी तो नही

सच बता

अगर तुम मेरी कल्पना

तुम मेरी प्रेयसी ही हो

तो मैं तुम्हें

इस वेलेंटाइन पर

प्रेम का इजहार करता हूँ

कवि हृदय का गुलाब मैं

तुम्हारे नाम करता हूँ

कभी ना रूठना

हे प्रेयसी यही मैं तुम से

मांग करता हूँ ।

-श्रीकांत राय भट्ट-

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